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जले अंगार वत / प्रेमलता त्रिपाठी

क्रोध से मन यों जले अंगार वत ।
व्यर्थ जीवन को करे जो खार वत ।

नैन करुणा से भरे पर दुख सहज,
स्नेह अंतस से उठे बस ज्वार वत ।

काल की गणना करें यदि धर्म पर,
संत बहुधा हैं मिले आधार वत ।

कंटकों में भी खिले जो फूल सम,
जो न जीते है कभी भी भार वत ।

याद आते दिन वही जब प्रेम के
श्वांस में सरगम भरे शृंगार वत ।