दिन भर के किस्से
कैसे मौसम-बिखरे
तूफ़ान-उजड़ी सूखी टहनियाँ
बटोर-बटोर कर
शाम को सिर पे लादे
भूखी अंतड़ियों में लिपटी सांसें
इस उम्मीद पे चला मैं
घर के रास्ते,
कि शायद इस बार की बटोरी से
आग तेज़ दहकेगी।
पर सब्र रखना होगा
शायद, कुछ लकड़ियाँ गीली है
आँच कम और
धुआँ दे-दे के जलेंगी
रुलायेंगी।