जल रहा है इस तरह पूरा बदन
आग का जैसे किया हो आचमन
आप ये जो जुल़्म मुझ पर ढा रहे
बाइरादा हैं कि यूँ ही आदतन
वासनाएँ यदि न प्रतिबंधित हुईं
बेच डालेंगी प्रणय के आचारण
तुम विरह की पीर को झेले बिना
प्रीति का कैसे करोगे आंकलन
मुस्कुरा कर माँगना कुंडल-कवच
आज भी प्रचलित वही कल का चलन
पाप के फल भोगते बीती उमर
पुण्य के भी तो मिलें दो-चार क्षण
उम्र भर आलोचना करते रहे
आज अर्पित कर रहे श्रद्धा-सुमन
इन्द्रियाँ स्वच्छन्द सब सुख भोगतीं
दर्द से आहत मगर अन्त:करण
भक्त से जो बन पड़ा करता रहा
आप भी तो कुछ करो अशरण-शरण