बहुत देर तक रोना चाहती हूँ
बिना किसी बात
बिना किसी वजह
बंद कमरे की चारदिवारी के बीच नहीं
बारिश में भीगते सबसे पुराने खंडहरों के पीछे
अकेले उन पुरानी पलस्तर उतरी
दीवारों के सहारे खडे होकर
जिनमें अतीत की गूँज का संगीत आज भी बजता है
बाज़ार धकिया रहा है अतीत को कोेने में
नयी एक खुराफाती आभा सी निकल रहीे है
बाज़ार के मुख से
जैसे जवान होती लड़की के चेहरे का नूर
अब जब भी जी भर आता है हमारा
तब काला चश्मा चढ़ा लेती है हम स्त्रियाँ आँखों पर
जिससे हमारे आँसू
हमारी मजबूरियाँ
हमारी इच्छायें
कामयाब न होने पाये
और हमारे रोने की कोशिश भी
लेकिन आँसू हैं कि बाहर आने को आतुर रहते हैं
हम उन्हें अपने गालों से नीचे
बे आवाज़
बे आबरू
बे जरूरत लुढ़कता हुआ नही देखना चाहते हैं
परन्तु हमारे दोस्त हमें मनाने में लगे हैं
कि मत रोओ
देखो देखो
अब हम बाज़ार में आ गए हैं
अब कोई डर नहीं
लेकिन हमारी रूलाई रूक नहीं रही है
अरे! ये तो बाजार ही हम तक पहुंच गया
हम दहाड़े मार कर रोना चाहती है
हमें नहीं चाहिए ये रंगीन बाजार
हम रोशनी से भ्रमित हो भाग रहे है
कस्तूरी गंध को बिना पहचाने
हमारे भीतर बाजार नहीं
एक स्त्री रहती है
जो बडी शिद्दत से रोना चाहती है
एक स्त्री की तरह।