राग सोरठ
जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै ।
कमलनैन हरि हिचिकिनि रोवै, बंधन छोरि जसोवै ॥
जौ तेरौ सुत खरौ अचगरौ, तउ कोखि कौ जायौ ।
कहा भयौ जौ घर कैं ढोटा, चोरी माखन खायौ ॥
कोरी मटुकी दह्यौ जमायौ, जाख न पूजन पायौ ।
तिहिं घर देव-पितर काहे कौं , जा घर कान्हर आयौ ॥
जाकौ नाम लेत भ्रम छूटे, कर्म-फंद सब काटै ।
सोई इहाँ जेंवरी बाँधे, जननि साँटि लै डाँटै ॥
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के ऊखल आपु बँधायौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त हेत ही देह धारि कै आयौ ॥
भावार्थ :-- (गोपियाँ कहती हैं-) `यशोदा जी ! श्याम तुम्हारा ही मुख देख रहा है । कमललोचन मोहन हिचकी ले-लेकर रो रहा है, यशोदा जी! (झटपट इसका) बन्धन खोल दो । यदि तुम्हारा पुत्र सचमुच उधमी है, तो भी वह उत्पन्न तो हुआ है तुम्हारे ही पेट से न? क्या हो गया जो घर के लड़के ने चोरी से मक्खन का लिया । (देखो तो मैंने ही) कोरी मटकी में दही जमाया था, कुल-देवता भी पूजने नहीं पायी थी (कि उसने झूठा कर दिया, पर मैं क्या क्रोध करती हूँ? अरे) उस घर में किसके देवता और किसके पितर, जिस घर में कन्हैया आ गया, जिसका नाम लेने से अज्ञान दूर हो जाता है, कर्म के जाल को काट देता है, उसी को माता ने रस्सी से बाँध दिया है और ऊपर से छड़ी लेकर डाँट रही है । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे प्रभु तो भक्तों के लिये ही शरीर धारण करके संसार में आये हैं; उन्होंने कुबेर के दोनों पुत्रों को दुःखी समझकर (उनके उद्धार के लिये) अपने को ऊखल से बँधवा लिया है ।