राग केदारौ
जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे , अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरौ कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ॥
ब्रज-बनिता सब चोर कहति तोहिं, लाजनि सकचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहि बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरौ ॥
जब मोहि रिस लागति तब त्रासति, बाँधति मारति जैसैं चेरौ ।
सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी, चोर नाम कैसैहुँ सुत फेरौ ॥
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं - (समझाते हुए) यशोदा जी कह रही हैं,`मेरे प्यारे कन्हाई ! तुम अपने ही आँगन में खेलो । अपने साथ के सब सखाओं को बुला लो, मेरा कहना कभी टाला मत करो । व्रज की सब स्त्रियाँ तुम्हें चोर कहती हैं, इससे मेरा मुख लज्झा से संकुचित हो जाता है । परंतु आज मुझ से बलराम कहते थे कि वे सब तुम्हें झूठ-मूठ बदनाम करती हैं । जब मुझे क्रोध आता है, तब मैं तुम्हें दास के समान डाँटती हूँ, बाँधती हूँ और मार भी देती हूँ । गोपियाँ ताली बजाकर (चिढ़ाकर) हँसती हैं, अतः पुत्र ! यह चोर नाम तो किसी प्रकार बदल (ही) डालो ।'