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जहाँ मैं पैदा हुआ / अरविन्द पासवान

जहाँ मैं पैदा हुआ
जगह का नाम था -- काला पहाड़
जनतंत्र की जननी
वैशाली का एक गाँव

जहाँ मैं पैदा हुआ
वहाँ जातियों के जीने रंग अलग थे
मगर ढंग एक

वहाँ चमार थे
आदमी और पशु के
जन्म या मृत्यु में
उनकी सेवा या सद्गति के लिए

मेहतर थे मेहतरी के लिए
समाज की बेहतरी के लिए

हलालखोर थे
हलाल का कमाने और
हलाल का खाने के लिए

थे धोबी
सोइरी से लेकर सतनहान तक के
कपड़े धोने के लिए

डोम थे
डलिया और सूप बूनने हेतु
मंगल काज के लिए

थे पासवान
वफादार
समाज के चौकीदार

नाई थे
छट्ठी और मुंडन से लेकर
दशकर्म तक के कर्मों के लिए

थे लुहार
खटिया सालने से लेकर
हर-फाड़, खुरपी कोदार
और बनाने के लिए दूसरे हथियार

बढ़ई थे
लकड़ी को ब्रह्म रूप देने के लिए

कुम्हार थे
मिट्टी के बर्तन और
बच्चों के खिलौने बनाने के लिए

थे कोइरी
अन्न व सब्जी उगाकर
समाज को पोसने के लिए

कानू और तेली थे
सरसों व तोड़ी से
शुद्ध तेल
निकालने के लिए

शंभू साव थे
सुस्वादु बड़ी, फुलौरी, कचरी
लिट्टी और चाय बनाने के लिए

ग्वाले थे
पशु पालने व बिरहा गाने के लिए

डॉ. गुलजार श्रीवास्तव थे
बीमार और लाचारों की सेवा के लिए

थे राजपूत
संकटों से लड़ने और समाज की रक्षा के लिए

पंडित और मौलवी भी थे
धर्म और ईमान की रक्षा के लिए

इधर
गाँव के हिन्दू
नियमपूर्वक
शुक्रवार की संध्या को
माई को जगाते थे
माई के भजन से
शिव शंकर नाना के मंदिर पर

उधर
बस्ती के मुसलमान
मस्त रहते सूफियाना संगीत में दरगाह पर
मस्जिद के पास

वंदना और इबादत के स्वर भिन्न थे
मगर राग एक

जैसे
कला पहाड़ में कोई
पहाड़ न था

वैसे ही
जातियों में
जातिवाद न था

लोग
एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते थे
सहज रूप से

गाँव और बस्ती में
जाति और कर्म के आधार पर
लोग न छोटे थे, न बड़े

लेकिन एक चीज बड़ी थी --
उनकी मनुष्यता

फिर भी टीसता है रह-रह
मन को एक सवाल
कि जहाँ मैं पैदा हुआ
जात ही जी जहे थे
या मनुष्य भी