ज़फ़र गोरखपुरी
शहर के अज़ाब, गाँव की मासूमियत और ज़िंदगी की वास्तविकताओं को सशक्त ज़ुबान देने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी 5 मई 2010 को 75 साल के हो जाएंगे। माज़ी के दरीचे से देखें तो नौजवानी में उन्होंने क्या धूम मचाई थी - बड़ा लुत्फ़ था जब कुँआरे थे हम तुम ! फ़िल्म नूरे-इलाही की इस क़व्वाली से लेकर फ़िल्म बाज़ीगर के गीत- ‘किताबें बहुत सी पढ़ीं होंगी तुमने’ तक उनके पास रुपहले गीतों की एक जगमगाती दुनिया भी है,जिसका ज़िक्र हम अगली पोस्ट में करेंगे। फिलहाल चलते हैं उनके शेरो-सुख़न की दुनिया में। ज़फ़र ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी,जोश मलीहाबादी,मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की है।सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी थी-
मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ मय बराबर बटे चारसू दोस्तो चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो
इसे सुनकर फ़िराक़ साहब ने सरे-आम ऐलान किया था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा। उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए थे और उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे। फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया-‘ सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकता।वाहवाही से बाहर निकलो।’
फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा - ‘ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।’
ज़फ़र गोरखपुरी बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे महत्वपूर्ण शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है । इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया । उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया । उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।
ज़फ़र गोरखपुरी ने बालसाहित्य के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। परियों के काल्पनिक और भूत प्रेतों के डरावने संसार से बाहर निकालकर उन्होंने बालसाहित्य को सच्चाई के धरातल पर खड़ा करके उसे जीवंत,मानवीय और वैज्ञानिक बना दिया । अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के कारण उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और प्रशंसा मिली।
ज़फ़र गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को हुआ । प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया । सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के अब तक पांच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – (1) तेशा (1962), (2) वादिए-संग (1975), (3) गोखरु के फूल (1986), (4) चिराग़े-चश्मे-तर (1987), (5) हलकी ठंडी ताज़ा हवा(2009)। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें आ चुकी हैं–‘नाच री गुड़िया’ ( कविताएं 1978 ) तथा ‘सच्चाइयां’ (कहानियां 1979)। हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र (1997) नाम से प्रकाशित हो चुका है।
गुज़िश्ता 50 सालों से ज़फ़र गोरखपुरी की कई रचनाएं महाराष्ट्र सरकार के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं जिन्हें लाखों बच्चे रोज़ाना पढ़ते हैं। रचनात्मक उपलब्धियों के लिए ज़फ़र गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) प्राप्त हो चुका है। उन्होंने 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां कई अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।
सम्पर्क : ज़फ़र गोरखपुरी : ए-302, फ्लोरिडा, शास्त्री नगर, अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400 053 फ़ोन : 022 – 2636 9313 . मो. 098337-52164