छत से आप ज़मीं पर तो आइए|
फिर ज़िंदगी की धर ज़रा आज़माइए|
घर के बडो की सीख पर चढ़ती है त्योरियाँ,
बाहर निकल के और को तेवर दिखाइए|
एस दौर में भी घर बसने की ख्वाहिशें,
साहील पे जाके रेत के कुछ घर बनाइये|
रंगीं है शाम, रात है, निकलेगा चांद भी,
बस मुस्कुराके आप ग़ज़ल गुनगुनाइए|
जो बात उसके बस की हो, करता है वो ज़रूर,
मजबूर है "विजय", तो उसे मत सताइए|