जब बनी थी मैं, तब सजी थी मैं
तब तुम्हारी ही अपनी ज़मीं थी मैं
एक अरसे से ख़ुद को सँभाले रक्खा
फ़क़त उसी क़ुदरत के सहारे रक्खा
बहते दरिया में चाँद की बिंदिया लगाई
माँग में कहकशाँ की सिंदुरिया सजाई
कानों में हवाओं की बाली थी पहनी
जज़ीराई नथ ने सागर की शोभा बढ़ाई
सहरा की रेती का सुरमा सजाया
कोहसार ने बाहों का हार पहनाया
माथे पे बर्फ़ का माँग-टीका सजाकर
पगडंडी पे हिना का लेप लगाया
आओ सखी, नहरों की चूड़ी पहनाओ
बरगद-ओ-पीपल से बाजूबंद सजाओ
फ़लक ये है आरसी, देखूँगी सजकर
गीले बालों में सीपों का गजरा लगाओ
फ़िज़ाओं में मीठा रोमानी इतर है घोला
पपीहा पायल-बिछुआ के सुर में बोला
लो सज गयी बेलों की तगड़ी कमर पे
हाँ, ओढ़ लिया तन पे मिट्टी का चोला
मगर ये क्या हुआ, ये कैसे हुआ है
कैसी है आग, क्या धुँध-ओ-धुआँ है
आईने में है आदमी या मेरा गुमाँ है
ये कैसा तरक़्क़ी पसंदी का दौर चला
अब मेरा वो आशिक़ कहीं और चला
साज-ओ-सिंगार भद्दा दाग़ है
मेरे चेहरे पे पड़ी ज़र्द ख़ाक है
हाय हाय रे, मैं जल रही अब
कैसी तुम्हारी भूख की आग है
मैं किसी की धरती माँ हूँ अगर
तो किसी की महबूबा-यार हूँ
बेसबब हक़ीक़त है यही मगर
मैं तो अब हालत-ए-ज़ार हूँ
मैं ज़रूरत मुताबिक नोची हुई
बाज़ारू औरत सी बेकार हूँ
मैं वक़्त की पुकार हूँ,
मैं वक़्त की पुकार हूँ।