Last modified on 23 मई 2018, at 12:52

ज़हर पिया था / यतींद्रनाथ राही

बैठ गये मुंह फेर दूर जा
जिनको हमने प्यार दिया था

कुछ के सपने बहुत बड़े थे
छोटे लगे दायरे उनको
पंखों में आकाश बँधे थे
ये गलियाँ बन्धन थी जिनको
चलते थे जो राजपंथ पर
अर्थ अनर्थ बाँध मुट्ठी में
सोने की चम्मच से मधुरस
आये थे पीकर घुट्टी में
क्या जाने वे हमने कैसे
माटी से श्रृंगार किया था।

अपने आसपास रिश्तों का
पूरा महाजाल था विस्तृत
पर जो उनको
जटिल त्याज्य थे
कैसे वे कर लेते स्वीकृत
झूलाघर से वृद्धाश्रम तक
जिनकी मनुस्मृति का
अथ इति
कैसे समझ सकेंगे
हम अब
उनके दर्शन की
यह मति-गति
कैसी श्रद्धा
कहाँ समर्पण
उनने तो
बाज़ार जिया था

दोनों ओर
फासले लम्बे
और बीच में यह सागर है
हैं लहरों की जटिल उलझने
उठते हुए ज्वार का डर है
गिनते रहो बैठ लहरों को
फैन बटोरो शंख सीपियाँ
लिखते रहो
रेत पर बैठे
झरते आँसू, घुटी सिसकियाँ
महादेव बनने से पहले
नीलकण्ठ ने, ज़हर पिया था।
23.12.17