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ज़हर पीकर जीने चले/ विनय प्रजापति 'नज़र'


लेखन वर्ष: 2003

ज़हर पीकर जीने चले
कच्चे-पक्के ज़ख़्म सीने चले

आँसू सूखे हुए थे
पलकों से बरसते हैं
सितारे सारी रात
चाँद को तरसते हैं

एक पूरा दिन पीने चले
कच्चे-पक्के ज़ख़्म सीने चले

महके-महके लगते हैं
गीले पलाश के पल
उड़ती फिरती रहती है
तेरी प्यास की धूल

काग़ज़ी यह आइने जले
कच्चे-पक्के ज़ख़्म सीने चले