Last modified on 8 मार्च 2011, at 20:39

ज़िंदगी की बात / हरीश निगम

ऊँघते दिन छटपटाती रात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

छाँव के छींटे नहीं बस धूप है
हर कदम पर एक अंधा कूप है
छत नहीं
सिर पर खड़ी बरसात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

क्या कहें इस पार ना उस पार के
हो गए हम नाम केवल धार के
हैं भँवर
कितने लगाए घात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

नाव काग़ज़ की बनाता है शहर
बाजियों से हम नहीं पाए उबर
जेब में
लेकर चले हैं मात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात