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ज़िंदगी की सूनी राह / प्रमिला वर्मा

आह! मैं गीत की एक भूली हुई पंक्ति हूँ।
जिसे हंसकर तुमने भुला दिया,
और!
याद करने की कोशिश भी नहीं की,
पर उस गीत से बिछुड़कर
मैं कितनी वीरान कितनी तनहा हो गई।
कोई मेरी आहत सिसक से पूछे,
कोई मेरे घाव को यूं ही सहला दे।
जैसे राह चलते,
गिर पड़े बच्चे को,
कोई उठाकर झटकार देता है।
और, बिना मुड़कर देखे चला जाता है।
पर इस राह पर तो कोई आता नहीं,
शायद आएगा भी नहीं।
ए! जिंदगी की सूनी लम्बी राह,
मुझे तुम ही क्यों नहीं गुनगुना देतीं।
विश्वास रखो,
कोई इस अकेली सिसक को नहीं सुनेगा,
वह गीत तो मेरे बिना भी पूरा हो गया।
जैसे मैं एक तिनका थी,
जो सैलाब में बह गई।
पर तुम किसी को कब आराम देती हो।
तुम तो हर एक पथिक को,
सिर्फ थकाती हो।
मेरी पपड़ी-पपड़ी उघड़ने लगी है।
काश! कोई उसे संवार दे।
मुझे नई जिंदगी नहीं चाहिए।
मैं तो उसी पुरानी तर्ज पर बजना चाहती हूँ।
पर यह सब कहाँ होना था,
अभी-अभी मेरे गीत का काफिला गुज़रा जिसकी भूली हुई पंक्ति हूँ मैं।
खिलखिलाते इठलाते उस काफिले ने
हाय मुझे कुचलकर, धूल के कण बनाकर
हवा में मिला दिया।