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ज़िंदगी स्वयं से / अरुणिमा अरुण कमल

आदमी उलझ जाता है
कभी थोड़ा रिश्तों में, मकान की किश्तों में ;
बच्चों की पढ़ाई में, बीवी की लड़ाई में;
बॉस की साज़िश में, सबॉर्डिनेट की गुज़ारिश में,
आषाढ़ के पसीने में, सावन के महीने में;
माशूका की आँखों में, आजीविका की सलाख़ों में;
ग़ज़ल में, कविता में, बच्चों में, माता-पिता में !

जिंदगी उलझ जाती है पूरी तरह;
एक तरफ़ शौक़ हैं, सपने हैं, दूजी ओर सारी ज़रूरतें हैं;
आदमी ज़रूरतों को जीता है, शौक़ हर ख़ुदकुशी कर लेता है;
जाएँ तो जाएँ कहाँ,
हर आदमी शुरू करता है ज़िंदगी स्वयं से;
फिर ज़रूरतें स्वयं के ऊपर हावी हो जाती हैं,
और फिर शौक़ को जीने की,
हर तरफ़ से मनाही हो जाती है !