मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद
उम्मीद के ख़त्म हो जाने पर भी
नहीं रहती मौन
शब्दों के चुक जाने पर भी
हँसती हूँ व्यर्थ ही
हँसी न आने पर भी
पुकारती हूँ गला फाड़
अनसुना हो जाने पर भी
कि उम्मीद को छोड़ा
तो फिर रहा क्या?
जो दोहराया ही न खुद को
तो आख़िर कहा क्या?
न हँसी व्यर्थ ही
तो कब हँस पाऊँगी
चीखकर जो पुकारा
तो खुद से ही मिलके आऊँगी
उम्मीद के पूरे होने की
स्वार्थी उम्मीद में
अब नहीं जीती मैं
उत्तरों की बाट जोहती
सूखी सुराहियाँ
नहीं पीती मैं
हँसती हूँ कि 'ज़िंदगी'
चलती रहे
पुकारती हूँ, कि चलो
मेरी ही ग़लती रहे
वरना ये समझने में अब
कोई मुश्किल, न कला
नि:स्वार्थ कोई किसी का
कभी हुआ है भला
और फिर एकाएक खिल पड़ती हूँ मैं
जैसे अपनी ही बेवकूफ़ियों से मिल पड़ती हूँ मैं
है बंजर ज़मीं, उधर सरहदों में
मैं उड़ती इधर, अपनी हदों में
जैसे सोने के पिंजरे का
इक परिंदा हूँ मैं
ईमां सलामत, तभी तो
ज़िंदा हूँ मैं