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ज़िन्दगी / महेन्द्र भटनागर

ज़िन्दगी —
एक ढर्रे की बनी,
हर घड़ी अभिशापिनी,
सदियों-सी बड़ी
किस काम की
जब नहीं है सनसनी ?

एकरस औ’ एक स्वर
गूँजता प्रत्येक घर !

बोझ से जीवन हुआ भारी
क्या यही है युक्त तैयारी ?
कि धारा राह में ठहरी
व छायी भूत-सी,
इस छोर से उस छोर तक
सुनसान-सी बीहड़ उदासी
मौत की गहरी;
कि फैली है
हृदय में रे
सड़ी-सी लाश की बदबू,
कि गन्दगी ऐसी
कि सारी ज़िन्दगी दूभर
रुक गयी थककर !
नहीं है
आज की यह ज़िन्दगी
इन्सान की अपनी सगी !
छिः, यह ज़िन्दगी !