चीख़ बनते जा रहे
हम सब खदानों की
हो गए हैं शोकधुन
बजते पियानो की ।
कल तलक सुनते रहे जो
आज बहरे हैं
आँसुओं के बोल जिनके
पास ठहरे हैं
ज़िन्दगी अपनी हुई है
मैल कानों की ।
देखते जब शब्द के
बारीक छिलके खोल
देश लगता रह गया
बनकर महज भूगोल
एक साजिश है खुली
ऊँचे मकानों की ।