Last modified on 5 अक्टूबर 2015, at 01:31

ज़िन्दगी की दौड़ में / पृथ्वी पाल रैणा

ज़िन्दगी की दौड़ में,
 अब क्या कहें
बेबजह इतना भगाया बेबसी ने
कुछ पलों की चैन पाने के लिए
उम्र भर रोते तरसते ही रहे
चन्द लम्हे खुल के जीने के मिले तो
हम ने उनको कहकहों में खो दिया
खूब रोए वक़्त की दादागिरी पर
हंसे भी,आंसू बरसते भी रहे
इस जहाँ में कितनी भी कोशिश करो
जीत पाना ख़ौफ़ से मुमकिन नहीं
कुछ नहीं तो ख़ुद से घबराने लगोगे
मन के दामन में हज़ारों छेद जो हैं
समझ पाए वह भला कैसे कभी कुछ
मन के बहकावे में जो जीता रहे
रीत की अंधी अनोखी बंदिशों में
अनगिनत पर्तें, हज़ारों भेद जो हैं