हाँ मैं पत्थर की गुडिया हूँ
न साँस लेती,
न जीती हूँ
छूने लगते हो जब मुझे,
रोकती, न टोकती
बस एकटक
पथराई आँखों से
निहारती हूँ तुम्हें...
और रगों में दौडते हैं
शबनम के कत्रे
जो कभी
अश्क बन
चमकते,
छलकते हैं कभी…
औ’ कभी
खून की मेंहदी रचाते हाथों पर...
दिल की धडकन भी
दस्तक
दे दे के
दिला जाती है याद –
शायद
अब
भी
ज़िन्दा
हूँ..?