Last modified on 7 नवम्बर 2013, at 14:13

ज़िन्दगी गिरी जैसे बिजली / ओसिप मंदेलश्ताम

ज़िन्‍दगी गिरी जैसे गरमियों में बिजली
पानी भरे गिलास में जैसे आँख के कोए ।
झूठ बोला, मैं एकदम झूठ
पर दोष इसमें नहीं किसी का ।

तुम्‍हें रात का सेब चाहिए क्‍या
रसभरा ताजा अभी-अभी तोड़ा हुआ
कहो तो उतार दूँ अपने ऊनी जूते
उठा दूँ उन्‍हें पंख की तरह ऊपर ।

मकड़ी का जाला पहने खड़ा है देवदूत
भेड़ की खाल का सुनहरी कोट लिए
मशाल की रोशनी पहुँच रही है
देवदूत के ऊँचे कन्धों तक ।

नींद से उठी बिल्‍ली
धारण करती है खरगोश का रूप
अचानक रास्‍ता काटती हुई
गायब हो जाती है दूर कहीं ।

काँप रही थी होठों की रसभरी
बेटे को पिलाई जा रही थी चाय
बिना कुछ सोचे-समझे
हो रही थीं बातें अर्थहीन-असंगत ।

अचानक बात अधूरी छोड़
वह मुस्‍करा दी झूठ बोलने की तरह
इस तरह कि चमक उठीं
रेखाएँ उसके बदरंग सौंदर्य की ।

उद्यानों की हलचल
और आँखों के कोओं के पीछे
एक ऐसा है देश
जहाँ तुम बन सकती हो मेरी पत्‍नी ।

चुन कर सूखे ऊन के जूते
सुनहरी कोट भेड़ की खाल का
ले कर हाथ में हाथ
चल देंगे हम दोनों उसी राह पर ।

निर्बाध, पीछे देखे बिना
इन चमकते मील पत्‍थरों पर
रात से सुबह तक
पड़ती रहेगी लालटेनों की रोशनी ।

मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह