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ज़िन्दाँ से एक ख़त / नाज़िम हिक़मत

मेरी जाँ तुझको बतलाऊँ बहुत नाज़ुक येः नुक़्ता<ref>भेद</ref> है
बदल जाता है इंसाँ जब मकाँ उसका बदलता है
मुझे ज़िन्दाँ में प्यार आने लगा है अपने ख़्वाबों पर
जो शब को नींद अपने मेहरबाँ हाथों से
या करती है दर उसका
तो आ गिरती है हर दीवार उसकी मेरे क़दमों पर
मैं ऐसे ग़र्क हो जाता हूँ इस दम अपने ख़्वाबों में
केः जैसे इक किरण ठहरे हुए पानी पेः गिरती है
मैं इन लम्हों<ref>क्षणों</ref> में कितना सरख़ुश-ओ-दिलशाद<ref>प्रसन्नचित्त</ref> फिरता हूँ
जहाँ<ref>दुनिया</ref> की जगमगाती वुसअतों<ref>विस्तार</ref> में किस क़दर आज़ाद फिरता हूँ
जहाँ दर्द-ओ-अलम का नाम है कोई नः ज़िन्दाँ<ref>जेल</ref> है
"तो फि’र बेदार होना<ref>जागना</ref> किस क़दर तुम पर गराँ<ref>भारी</ref> होगा"
नहीं, ऐसा नहीं है, मेरी जाँ, मेरा येः क़िस्सा है
मैं अपने अज़्म<ref>संकल्प</ref>-ओ-हिम्मत से
वही कुछ बख़्शता हूँ<ref>दान देता हूँ</ref> नींद को जो उसका हिस्सा है

शब्दार्थ
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