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ज़ोरे बाज़ुए अली / नज़ीर अकबराबादी

एक मोजिजा<ref>चमत्कार</ref> कहता हूं मैं उस शाह का सुनकर।
मोती से सुख़न है लो इसे धागे से चुनकर।
एक क़ाफ़िरे बदज़ात चला लड़ने की धुन कर।
आ सामने हैदर के ग़जब आग सा भुनकर।
जूं ऊंट ज़िबह करते हैं चिल्ला के दहाड़ा॥1॥

कहने लगा मैं तुमसे अली कुश्ती लडूंगा।
कुश्ती के जो हैं पेच अली तुमसे करूंगा।
ख़म ठोंक के मैदाँ में अपनी तुमसे अडूंगा।
हां, या अली मैं आपसे कुछ गिर न पडूंगा।
हर चंद अली आपने देवों को पछाड़ा॥2॥

जब शाह उठे जोश में आ तैशो ग़ज़ब के।
यकबारगी उस काफ़िरे बदज़ात से लिपटे।
कर यादे ख़ुदा हाथ कमर बंद में उसके।
एक हाथ से फेंका जो उसे तीन चरख़ दे।
यूं गिर पड़ा जं गिरता है दरिया का कड़ाड़ा॥3॥

चाहा जो उठे ख़ौफ़ से वह कांप धड़क कर।
उस शाह ने मारी वही एक लात कड़क कर।
रूह उसकी निकलने लगी नथनों से फड़क कर।
नथनों से लहू डाल के माथे पै छिड़क कर।
मुनकिर<ref>शर अ को न मानने वाला</ref> को अजल ले चली दरिया को निवाड़ा॥4॥

दांतों से पकड़ तिनका वह बोला अली आया।
तक़्सीर<ref>ख़ता, कुसूर</ref> हुई मुझसे मैं अपना किया पाया।
फिर उसको मुसलमां किया, कलमे को पढ़ाया।
कुफ़्फार में जा दीन के डंके को बजाया।
दीं-दाँरी<ref>दीन, धर्म पर चलाना</ref> को जारी किया और कुफ़<ref>ईश्वर को एक न मानना</ref> को गाड़ा॥5॥

शब्दार्थ
<references/>