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जागते रहेंगे / महेन्द्र भटनागर

आग बन गया

उपेक्षितों का वर्ग ;

कि ढह रहा प्रवंचना का दुर्ग !

पत्थरों के कोयले धधक उठे,

लपट मशाल बन

हवा के संग

अंधकार पर प्रहार कर रही !

जगमगा उठी

दमित युगों की रात;

पर्व है 'नुशूर' का -

मृतक शरीर कब्र फोड़

जागता है नींद छोड़ !

जंगलों के पेड़

खड़खड़ा उठे !

ये आँधियाँ हैं

जो कभी उड़ी नहीं,

ये बिजलियाँ हैं

जो कभी गिरी नहीं,

कि बदलियाँ गभीर

जो कभी घिरी नहीं !

गरज से कड़कड़ा रहा

दंत पीस क्रुद्ध दिग-दिगन्त !

संगठित समूह की दहाड़ से

नये समाज में

तमाम शोषकों के कागज़ी पहाड़

राख हो रहे !

कि जड़ समेत सब उखड़

हवा के तामसी महल

सहज में ख़ाक हो रहे !

यह आग है कि

बर्फ़ की तहों से दब न पायगी,

कि क्षिप्र जल की धार से

कभी भी बुझ न पायगी !

जब तलक है

अंधकार शेष इस ज़मीन पर

तब तलक

अमीर खटमलों-सा

चूसता रहेगा निर्धनों का रक्त !

हर गली में

भूत की डरावनी हँसी

निराट गूँजती रहेगी

तब तलक !

प्रसुप्त

प्रस्तरों की चादरों को छोड़,

प्रांशु भाल,

प्राज्य शक्ति,

ध्रुव प्रतीति ले

उठा रहा प्रहारना का अस्त्र !

है असाँच-गर्व मृत,

असार

अस्तमन, विधुर, विपन्न ;

अब विभीषिका-विभावरी

विभास से विभीत पिंगला !

नवीन ज्योति का

सशक्त कारवाँ चला,

कि गिर रहा है टूट-टूट कर

क़दम-क़दम पर अंधकार !

जागते रहेंगे हम,

कि जब तलक

यह रुद्ध-राह-द्वार

खुल न जायगा,

यह वर्ग-भेद, जाति-द्वेष

मिट न जायगा,

हमारी धमनियों में

ख़ून खौलता रहेगा

तब तलक !

1949