दिन-दिन आता समीप जागरण!
पर्वत वन हैं, तो क्या?
घुमड़े घन हैं, तो क्या?
उन्मन मन है, तो क्या?
बढ़ते जाओ, पंथी, पंथ पर धर धीर चरण।
तुमने झोंके झेले,
तूफानों में खेले,
पर्वत पग से ठेले;
मर्दित देखो अपनी पद-रज में भीत मरण।
जीवन क्या, जो न चढ़ा?
यौवन क्या, जो न बढ़ा?
वह स्वर क्या, जो न कढ़ा?
निर्झर-गति-प्रखर शिखर-शिखर करो नित्य तरण।
कुछ न मिला, कुछ न खिला,
पाई बस शैल-शिला,
तन-मन कुछ और छिला;
पर व्रण तो, धीर, अमर वीरों के आभूषण।
चाहे थक जाए पथ,
पर न रुके पौरुष-रथ,
शोणित-श्रम से लथपथ
बढ़े चलो, बढ़े चलो, निर्भय, हे अमर-वरण!