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जाड़े का गीत / सुरेश विमल

कल्लू राम कुल्फियों वाले
मक्खी मार रहे हैं
रह-रहकर जाड़े के मौसम
को धिक्कार रहे हैं।

रौनक राम रजाई ओढ़े
आलू काट रहे हैं
बच्चे उनके शकरकंद का
हलवा चाट रहे हैं।

हौलू जी हलवाई की
किस्मत क्या ख़ूब खुली है
गरम जलेबी बीस किलो की
हाथों-हाथ तुली है।

सिलबट्टे पर पीस-पीस
चूरन-सा फांक रही है
दादी पोती पोतों से
रेवड़ियाँ मांग रही है।