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जाते-जाते कहते हो / अज्ञेय

 जाते-जाते कहते हो-'जीवन, अब धीरज धरना!'
क्यों पहले ही न बताया मत प्रेम किसी से करना!

तुम कहते तो मैं सुनती? मैं आहुति स्वयं बनी थी!
मेरी हतसंज्ञ विवशता में चेतनता कितनी थी!
मेरे धीरज से तुम को क्या? अब इस को खोने दो,
परिमाण प्रणय के ही में बस रोने दो, रोने दो!

1935