Last modified on 15 मई 2011, at 11:12

जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 11

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 11)

रंगभूमि में राम-4

 ( छंद 73 से 80 तक)

कहि प्रिय बचन सखिन्ह सन रानि बिसूरति ।
कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति।73।

 जौं बिधि लोचन अतिथि करत नहिं रामहिं।
तौ कोउ नृपहिं न देत दोषु परिनामहि।।

अब असमंजस भयउ न कछु कहि आवै।
रानिहिं जानि ससोच सखी समझावै।।

देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय
चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय।।

तीनि काल को ग्यान कौसिकहि करतल।
सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल। ।

मुनि महिमा सुनि रानिहिं धीरजु आयउ ।
तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ।।

सुनि जिय भरउ भरोस रानि हिय हरषइ।
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ।।

नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं।
मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरू रिनवहिं।80।

(छंद-10)
 
रितवहिं भरहिं धनु निरखि छिनु-छिनु निरखि रामहिं सोचहीं।
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं।

तब जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकहिं लै आयऊ।
सिय रूप् रासि निहारि लोचन लाहू लागन्हि पायऊ।10।

(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 11)

अगला भाग >>