एक ख्वाब में धुला निखरा अंधेरा है
दूर तक बीहड़, सूखे, उदास, जले, काले पेड़
भागती हूँ बदहवास, बेपता
तलाशती हूँ तुम्हे थामती हूँ अपना ही हाथ
अपना ही पर्दा हूँ
खुद ही सेझाँकती हूँ
छिप जाती हूँ
सहलाती हूँ ज़मीनजैसे तुम छूते हो
करना चाहती हूँ प्रेम और संशय में पथरा जाती हूँ
चूमती हूँ दीवार सपाट
खिरने लगता है चूना, नमक से भरती जीभ
खारे,अपने ही आँसुओं में लगाती हूँ डुबकी नदियों के सिकुड़ने से पहले
लेती हूँ श्वास और महुआ की गंध में उन्मत्त हाथी से खयाल
झुंड के झुंडमचाते हैं उत्पात
उतारना चाहती हूँ त्वचा
आखिरी परत तक होने एकदम नग्न
कि ठीक ठीक महसूस कर सकूँ सब जैसे मिट्टी
विवस्त्र औ’ आज़ाद
हो जाया चाहती हूँ ढेला, चाँद होने से पहले
धरती का गला रुँध गया है उसे चिपटा लेना चाहती हूँ सीने से बहुत कस कर
आज रात अकेले नहीं सोने दूँगी उसे
उसकी दरारों में उंगलियाँ फंसा कर गुनगुनाऊँगी...
मैं बेपता सही...
जानते होंगे बादल साँवले...
प्रतीक्षाएँ...
सूखा हैं!