जाने कितनी कविताएँ
अ़जन्मी रह गयीं
कितना कुछ रह गया
अनकहा
जानते - समझते
मगर अनचाहे
सहा सब
अघटित रखने का संताप
सारा अवसाद, क्षोभ, मान
बहता रहा मन से
देह तक
और मैं
साधती रही
स्वयं को
गहरे मौन में
जाने कितनी कविताएँ
अ़जन्मी रह गयीं
कितना कुछ रह गया
अनकहा
जानते - समझते
मगर अनचाहे
सहा सब
अघटित रखने का संताप
सारा अवसाद, क्षोभ, मान
बहता रहा मन से
देह तक
और मैं
साधती रही
स्वयं को
गहरे मौन में