अपनी दांयीं कनपटी पर
सटाकर इल्जामों की लोडेड बंदूक
सोचना...
अवसर कौन से आए थे
जिसे वाद बना दिया गया
कुछ जायज ख्याल थे
जायज सवालों की तरह
वास्ता ज़िन्दगी से
आंसू भर कभी नहीं हुआ
ये और बात रही
हंसने पर ऊंगलियां उठीं
और रोने पर तालियां
जो हुआ वह अजीब नहीं था बिल्कुल
अवसर के ठेंगे से
ट्रिगर दबाती हूं
निशाने पर रखकर वाद
नजदीकी फडफ़ड़ा उठती है
गोलियों की आवाज से
चिडिय़ों की तरह
चल पड़े हैं लोग अब
पांव में पहनकर
जूतियां समय की
फूंकती हैं धूआं
आग आग वजूद की
प्रेम सबसे जायज जरूरत होते हुए भी
एक नाजायज ख्याल है।