Last modified on 12 जून 2020, at 22:37

जाल फेंक रे मछेरे / बुद्धिनाथ मिश्र

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो।

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बाँध रही छाँह हो।

कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है
यों ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो।