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जिजीविषा पगली / राजेन्द्र वर्मा

कब तक जियें ज़िन्दगी जैसे
दूब दबी-कुचली ।
युगों-युगों से छलता आया
हमको समय छली ।।

जिसे देखिए, वही रौंदकर
हमको चला गया
अपशब्दों की चिंगारी से
मन को जला गया

छोटे-बड़े, सभी ने मिल
छाती पर मूँग दली ।

लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी
जो थी बची-खुची
जीने को तो मिली जि़न्दगी,
पर सँकुची-सँकुची

शीश उठाया, तो माली ने
की हालत पतली ।

क्यारी का हर फूल हमारी
हालत पर हँसता
कली-कली पर नज़र गड़ाये
बैठा गुलदस्ता

मान और सम्मान न जाने
जिजीविषा पगली ।।