पीर हृदय की युवा हो गयी,
कोहरे में हर दिशा खो गयी।
ऐसी वायु चली मधुवंती,
संवेदनशीलता सो गयी।
चिथडों पर पैबंद टाँकते,
जिजीविषा सुईयां चुभो गयी।
शब्द ब्रम्ह की चाटुकारिता,
अर्थों की अर्थियाँ ढो गयी।
मान गये चुप्पी का लोहा,
मन को अपने में समो गयी।
गयी सुबह कुछ ऐसे लौटी,
सूरज की लुटिया डुबो गयी।