अब तो लगता गरमी आए,
जितनी जल्दी हो।
शाला कि छुट्टी हो जाए,
जितनी जल्दी हो।
दौड़-भागकर पहुँचें गाँव के,
घर के बाहर।
वहीं खड़ी दादी मिल जाए,
जितनी जल्दी हो।
रोज-रोज दादी तो मुझको,
सपने में आती।
रोज गूंथती चोटी मेरी,
कंगन पहनाती।
अब तो सपना सच हो जाए,
जितनी जल्दी हो।
कंडे-लकड़ी-चूल्हे वाली,
रोटी अमृत-सी।
उस रोटी पर लगा गाय का,
देशी ताज़ा घी।
काश! मुझे हर दिन मिल जाए,
जितनी जल्दी हो।
किसी रेलगाड़ी में रखकर,
गाँव उठा लाऊँ।
दादी वाला आंगन अपनी,
छत पर रखवाऊँ।
बचपन उसमें दौड़ लगाए,
जितनी जल्दी हो।
बचपन वाली नदी नील सी,
सूखी-सूखी है।
कल ही तो दादी ने ऐसी,
चिट्ठी भेजी है।
राम करे जल से भर जाए,
जितनी जल्दी हो।