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जिनिगी के राह / मनोज भावुक

मन उदास रहे
बइठल रहीं बउरहवा बर तर
आ सोचत रहीं, का-का दो।
तलहीं एगो मेहरारू
परसन बाबा के जल चढ़ावे आइल
आ गते-गते बुदबुदाइल–
' हे भगवान हे परसन बाबा
उठा ल शंभुआ के
ओकर गाय-गोरू सब मर जाव
ओकरा लइका के नोकरी छूट जाव
तहरा के जिनिगी भर पूजब
तहार मंदिर बनवा देब। '

हमार माथा ठनकल
ई त शंभुआ के भउजाई हीअ।
आ इहे?

तलहीं पोखरा से नहा के निकलत
एगो दोसरा मेहरारू पर नजर पड़ल
पाका पर काई जामल रहे
मेहरारू फिसल गइल आ ओकर नन्हका
कूद-कूद थपरी पीटे लागल
जा-माई गिर गइल, जा माई गिर गइल।

हमार दिमाग घूमरी-परेउआ खेले लागल
'जिनिगी के राह' में केतना काई बा
केतना बिछलहर बा
केतनो संभलला पर कहीं ना कहीं
बिछला जाता आदमी
आ तब ओकर आपने केहू
पीटे लागत बा थपरी जोर-जोर से।
का उहो अबोधे बा ओह नन्हका लेखा?