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जिन लफ़्जों में / मजीद 'अमज़द'

जिन लफ़्जों में हमारे दिलों की बैअतें हैं क्या सिर्फ वो लफ़्ज हमारे कुछ भी न करने
का कफ़्फ़ारा बन सकते हैं
क्या कुछ चीख़ते मानों वाली सतरें सहारा बन सकती हैं उन का
जिन की आँखों में उस देस की हद उन वीराँ सहनों तक है
कैसे ये शेर और क्या उन की हक़ीक़त
ना साहब इस अपने लफ़्जों भरे कनस्तर से चिल्लू भर कर भीक किसी को दे कर
हम से अपने क़र्ज़ नहीं उतरेंगे
और ये क़र्ज़ अब तक किस से और कब उतरे हैं
लाखों नुसरत-मंद हुजूमों की ख़ानदा ख़ानदा ख़ूनी आँखों से भर हुए
तारीख़ के चौराहों पर
साहिब-ए-तख़्त-ख़ुदावदों की कटती गर्दनें भी हल कर न सकीं ये मसाइल
इक साइल के मसाइल
अपने अपने उरूजों की उफ़्तादगियों में डूब गईं सब तहज़ीबें सब फ़लसफे.....

तो अब ये सब हर्फ़ ज़बूरों में जो मुजल्लद हैं क्या हासिल उन का....
जब तक मेरा ये दुख ख़ुद मेरे लहू की धड़कती टक्सालों में ढल के दुआओं भरी इस इक
मैली झोली में न खनके
जो रस्ते के किनारे मिरे क़दमों पे बिछी है