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जिसकी कल्पना तुमने की थी / विजयदेव नारायण साही

आओ मैं खिड़की से तुम्हें
एक अद्भुत दृश्य दिखाऊँगा ।
रोशनी से बिंधे उस कमरे में
वही आदमी रहता है
जिसके होने की कल्पना तुमने की थी
 
वह मेज़ पर पड़ते प्रकाशवृत्त को देखता रहता है
धीरे-धीरे उसका शरीर क़न्दील की तरह चमकने लगता है
जैसे उसके भीतर
एक ठण्डा लट्टू जल रहा हो

यहाँ तक कि उसकी रोमावली प्रकाशित हो जाती है
और उसके सूखे पारदर्शी होंठों में
लाल नीली नसें बिल्कुल साफ़ दिखलाई देती हैं
शीशे की रंगीन गोलियों की तरह
उसकी आँखें स्थिर हो जाती हैं ।
 
जैसे वह सिर्फ़ उस फैलाव को देख रहा हो
जो मेज़ की सतह पर
निर्मित होता जाता है ।

तुम्हें विश्वास नहीं होता
लेकिन उसके पास कहने को कुछ नहीं है
सिर्फ़ उसकी आवाज़ में
एक मिठास है ।

जैसे वह बहुत दूर से लौटा हो ।