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जिसको बचपन में देखा / माधव कौशिक

जिसको बचपन में देखा वो पनघट पोखर ढूंढूंगा।
अगली बार गाँव में जाकर फिर अपना घर ढूंढूंगा।

शहरों की शैतानी आँतें लीले गईं हर चीज़ मगर,
दिल की बच्चों जैसी ज़िद ककि तितली के पर ढूंढूंगा।

चेहरा तो चेहरा आँखों का सपना भी गुमनाम रहा,
लेकिन बिन मायूस रहे मैं रोज़ मुकद्दर ढूंढूंगा।

बुरे दिनों ने सिखाई है जीने की तरकीब नई,
जो कुछ चौराहे पर खोया घर के अन्दर ढूंढूंगा।

ऐसा लगता है टाँगे ही टाँगे हैं अब लोगों की,
मुझको मौका मिला तो सबके कटे हुए सर ढूंढूंगा।

हो सकता है मुझे देखकर फिर छिप जाए जँगल में,
मैं अपनी खोई फितरत को भेस बदलकर ढूंढूंगा।

तुम मेरे चेहरे पर लिखना इन्द्रधनुष उम्मीदों के,
मैं तेरी सूनी आँखों में नीला अम्बर ढूंढूंगा।