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जिस शजर पर तुम हमेशा फैंकते पत्‍थर रहे हो / राजीव भरोल


जिस शजर पर तुम हमेशा फैंकते पत्‍थर रहे हो,
पास में उसके ही मेरा भी मकां है जानते हो.

सीख कर उड़ना न लौटे वो कभी वापस इधर फिर,
अब हूं सूना घोंसला तो क्‍यों भला ना दुख मुझे हो.

लड़ रहे हो आँधियों से जिस तरह लड़ते ही रहना,
इस अंधेरी रात में अब तुम ही बस अंतिम दिये हो.

छांव में बैठेंगे और पत्‍थर भी सब फैंकेगे तुम पर,
पेड़ छायादार हो तुम और फलों से भी लदे हो.

मैं भला क्‍यों कर डरूं अब राह की दुश्‍वारियों से,
जिंदगी के रास्‍ते में तुम जो अब रहबर मेरे हो.

है डरा सहमा अंधेरा, वो बढ़े कैसे अब आगे,
हाथ में दीपक लिये तुम बन के उजियारा खड़े हो.