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(यह कवि की अंतिम लंबी कविता है । जीतू हिमालय का बाँसुरी वादक है।)
जहाँ जन्म ले गंगा, ऊँचे हिम शिखरों पर
चट्टानों पर गिर विचूर्ण, पुनः चूर्ण हो,
गहरी सूनी अंधघाटियों में गिरती पड़ती है बहती,
क्रुद्ध नागिनी-सी अपने फन सहस पटकती,
गर्जन करती,तर्जत करती, मुख से गरल उगलती,
(जीतू पृष्ठ 64)
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जहाँ बरसते हिम के फूल शिशिर में मनहर
ढकते धरती भोज-पत्र तरू उच्च गिरि-शिखर ।
(जीतू पृष्ठ 69)
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कमलों के वन में फिरते उस स्वर्ण हंस को
हर ले गई अचानक नभ की मुख्य हवाएँ,
फिर न सुनाई दिया कहीं भी वह कल-कूजन,
लुप्त हुआ वह रूप धरा से, और आय! जे
उसे प्यार करते थे जीवित न रहे वे भी ।
(जीतू पृष्ठ 77)