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जीने की ख़ातिर अपनाया / हरिवंश प्रभात

जीने की ख़ातिर अपनाया, ऐसा भी हो सकता है।
पैसा को भगवान बताया, ऐसा भी हो सकता है।

बंद हवा है और उमस से, जान निकलती है लेकिन,
रात में पानी भी बरसाया, ऐसा भी हो सकता है।

कीचड़ में है कमल खिलाना, नागवार जिसको लगता,
पत्थर पर हो दूब उगाया, ऐसा भी हो सकता है।

हर मुश्किल आसान समझना, जिन लोगों की फ़ितरत है,
शायद सर पर धुन का साया, ऐसा भी हो सकता है।

रात की रानी महका करती, जिसके घर के आँगन में,
उसका अपना बना पराया, ऐसा भी हो सकता है।

काटा है उस पेड़ को जिसने, पानी रोज़ पटाया था,
बनेगा वह दीवान का पाया, ऐसा भी हो सकता है।

राई को पर्वत कह देना, फूलों को काँटा कह देना,
आलोचक का दंभ सताया, ऐसा भी हो सकता है।

बेकार की चिंता करनी है, ‘प्रभात’ फिजूल की बातों की,
दिल में कसरती की काया, ऐसा भी हो सकता है।