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जीभर तुझे निहारूँगी / कविता भट्ट


तुझे अनुभव हो या न हो
पहाड़ी पर बैठे चाँद-सा
जीभर तुझे निहारूँगी ही
हाँ! चाँदनी बन स्पर्श करूँगी।
तेरी आँखों में झाँक धीरे से
अपने चेहरे के धब्बों को
मिटाने का सोचकर बैठी रहूँगी
चुप-सी बहती नदी के किनारे।
रोना तो बहुत चाहती हूँ
हाँ, फिर भी रोऊँगी नहीं।
क्योंकि सुना है- लोग कहते
रोना कमजोरी की निशानी ।
चाँद को निहारते हुए सीखा है
हर शाम उगने का हुनर-
अपना टेढ़ा मुखड़ा लेकर
अब चाँद पूनम का हो या
पहली रात का सहमा सा
चाँद तो चाँद ही है।
काश! टेढ़े मुँह वाले चाँद की सच्चाई
लोग समझ पाते।
तो शायद न कहते-
मेरे दुःख में विकल
चाँद क्यों नहीं?
क्यों अमावस को छोड़कर
हर दिन फिर से उग आता है
अपना टेढ़ा मुखड़ा लेकर?

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