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जीवन: तीन स्थितियाँ / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

फेफड़े भर लूँ हिमालय के पवन से,
नीलिमा पी लूँ निखिल आकाश की मैं!
सिन्धु की हिल्लोल बनने, प्राण में मैं-
माधुरी भर लूँ सकल मधुमास की मैं!
एक क्षण जी लूँ-मधुरतम तृप्ति का मैं!
सरस ज्योति-लहर बनूँ, जड़ मृत्तिका मैं!

जीवन है स्वीकार न मुझको सीधी-खिंची लकीर-सा,
चाहे वह झंकार-भरा नूतन सितार का तार हो।
गोलाकार क्षितिज-रेखा-सा भी जीवन लूँगा नहीं-
चाहे वह वन-वल्लरियों-सा सुन्दर घूँघरदार हो!
जीवन लूँगा मैं तो आँधी, नद्दी सर तूफ़ान-सा,
जिसमें तड़पन हो, ज्वाला हो, गुंजन, मेघ-मलार हो!

मैं-और मानूँ हार?
जन्म से जो ऊधमी हो-
मौत के जबड़े पकड़ कर,
खींच उसके दाँत सारे,
ज़िन्दगी का अर्क़ पीने को खड़ा तैयार!
मैं-और मानूँ हार!