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जीवनमुक्त / ‘हरिऔध’

 
किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।
किसे नहीं उसके विशाल दृग भेदते।
किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1।

निज लपटों से करके दग्ध विपुल हृदय।
कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।
करके भस्मीभूत विचार, विवेक को।
किसके उर में क्रोध आग नहिं दहकती।2।

अनुचित उचित विचार-विहीन, उपद्रवी।
प्रतिहिंसा-प्रिय, हठी, निमज्जित अज्ञता।
असहन-शील, कठोर, दांभिक, मंदधी।
किसे नहीं करती प्रमत्ता, मद-मत्ताता।3।

कहीं कान्त-स्वर-ग्राम रूप में है रमा।
कहीं सरस रस परिमल बन कर सोहता।
सुत-कलत्र ममता-स्वरूप में है कहीं।
मधुर मूर्ति से मोह किसे नहिं मोहता।4।

तीन लोक का राज तथा सारा विभव।
पा करके भी तृप्ति नहीं होती जिसे।
रुधिर-पात पर-पीड़न का जो हेतु है।
भला लोभ विचलित करता है नहिं किसे।5।

चाहे द्रोह, प्रमाद, असूया आदि हो।
चाहे हो मत्सर, चाहे हो पशुनता।
काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ जैसे अपार।
दोष हैं न, ये सकल दोष के हैं पिता।6।

अनुपम साधन तथा आत्मबल अतुल से।
जिसका जीवन इन दोषों से मुक्त है।
पूत-चरित लोकोत्तार-गुण-गरिमा-बलित।
वही इस अवनि-तल पर जीवनमुक्त है।7।

क्या सकामता उसमें होती है नहीं?
होती है, पर वह होती है सुरुचि-मय।
बन जाता है पर फलद औ पूत तम।
काम-बिशिख छू अति पावन उसका हृदय।8।

नहिं विलासिता हेतु बनी उसके लिए।
किसी काल में कामिनी-कुल-कमनीयता।
वरन उसे सब काल दिखा उसमें पड़ी।
उस महान महिमा-मय की महनीयता।9।

उस पावक सा पूत कोप उसका मिला।
जो कंचन को तपा बनाता है विमल।
या होता है वह उस बाल पतंग सा।
जो समुदित हो देता है तम-तोम दल।10।

उस आतप सा भी कह सकते हैं उसे।
जिसके पीछे सुखद सलिल है बरसता।
वह सुतप्त जल भी उसका उपमान है।
तन जिससे पाता है अनुपम निरुजता।11।

यह वह शासन है जिससे सुधारे कुधी।
यह वह नियमन है जिसमें है हित निहित।
वह प्रयोग है मुक्त जनों का कोप यह।
जिससे अविहित रत पाता है पथ विहित।12।

आत्म-त्याग का अति पुनीत मद पान कर
वह रहता है सदा विमुग्धा प्रमत्ता सा।
होती हैं इसलिए भूत-हित में रँगी।
सकल भावनाएँ उसकी मद-संभवा।13।

पर-दुख-कातरता पर वरता बंद्यता।
अहं मन्यता को मानवता पगों पर।
सदा निछावर करता है वह मुग्धा हो।
पर-हित-प्रियता पर गौरव-गरिमा अपर।14।

कर विलोप साधान नभ-तारक-पुंज का।
दिन-नायक सा नहिं होता उसका उदय।
समुदित होता है वह कुमुदिन-कान्त सा।
सप्रभ, अविकलित, रंजित, रख तारक निचय।15।

होता है उर मोह महत्ताओं भरा।
होती हैं भ्रम-मयी न उसकी पूर्तियाँ।
मधुमयता, ममता, विमुग्धाता में उसे।
विश्व-प्रेम की मिलती हैं शुचिर् मूर्तियां।16।

सुन्दर-स्वर लहरी उसकी चित-वृत्ति को।
ले जाती हैं खींच अलौकिक लोक में।
बहती है अति पूत प्रेम-धारा जहाँ।
भक्ति-सुधा-सँग दिव्य ज्ञान आलोक में।17।

भाव 'रसो वै स:' का उसमें है भरा।
परिमल करता है मानस को परिमलित।
पाठ सिखा देता है समता का उसे।
मनन-शीलता सुत-कलत्र ममता-जनित।18।

कभी लोक-सेवा-लोलुपता-रूप में।
कभी उच्चतम-प्रेम ललक की मूर्ति बन।
मुक्त जनों का लोभ विलसता है कभी।
पा भावुकता-लसित-लालसा-पूत-तन।19।

रज-समान गिन तीन लोक के राज को।
लोक चित्ता-रंजन-हित लालायित रहा।
बना रहा वह विहित लाभ का लालची।
सदा विभव तज भव-हित-धारा में बहा।20।

रक्त-पात नियमन मदान्धाता दमन का।
सत्य, न्याय, को समुचित मान प्रदान का।
उसके जी से लोभ न जाता है कभी।
जीव-दया, सच्ची स्वतन्त्रता दान का।21।