बारी अब अन्त काल की आई।
भोग-विलास-भरे विषयों की, करता रह कमाई,
आज साज सब देने पर भी, टिकता नहीं घड़ी भर भाई।
व्याकुल वनिता ने अँसुओं की, आकर धार बहाई,
पास खड़ा परिवार पुकारे, रोक न सकी सनेह-सगाई।
लगे न ओषधि कविराजों ने, मारक व्याधि बताई,
नेक न चेत रहा चेतन को, बिछुड़ी गैल गमन की पाई।
प्राण-पखेरू तन-पंजर से, भागा कुछ न बसाई,
काल पाय हम सब की होगी, हा ‘शंकर’ इस भाँति बिदाई।