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जीवन-धन / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

लुट गयो धींग धनी धन तेरो।
मंजिल दूर सोच रथ पै चढ़ि, घर ते चलो अबेरो,
सूरज अस्त भयो मारग में, कियो न रैन बसेरो।
आधी रात भयानक बन में, तोहि नींद ने घेरो,
चपल तुरंग अचानक चौंके, स्यन्दन सर में गेरो।
सूत-पूत कीचड़ में कचरो, जीवत बचौ न चेरो,
तू अपनी पूँजी लै भागो, अटको आय लुटेरो।
छिन में छीन कमाई सारी, रीते हाथ खदेरो,
सो न रह्या अब जाहि कहत हो, ‘शंकर’ मेरो-मेरो।