एक ऊँचे पेड़ की फुनगी में
लम्बे नुकीले काँटे की नोक पर
आ बैठी चिड़िया
और गाने लगी जीवन का गीत
और खोलती रही
बीच-बीच में सुनहले पंख आकाश में
रुक गया कुछ देर
सूर्य का विस्मित रथ
काँटा नुकीला
चुभता गया अन्दर-अन्दर
चिड़िया के जीवन में
उसकी सोची हुई दुनिया में
स्वपन में
उड़ारी में
पेट और अंतड़ियों को छेदकर
निकला बाहर
और सरक उतरी चिड़िया
काँटे की जड़ तक
पर गीत गाना नही छोड़ा चिड़िया ने
ख़ुश थी
जीवन राग था
उसकी आँखों में
चिर-वांछित
यह उसका लम्हा
और सेज पिया की...
टपका लहू
यह उसकी कविता...
काल समुद्र में डूब गया
लहू के रंग का चन्द्रमा
तब से गाती हैं समुद्र में लहरें
चिड़िया के गीत
मै डरता हूँ
ख़ुद को कवि कहते