क़लम उठाकर उसने पहला शब्द लिखा
जीवन
तपते पठार थे झाड़ियाँ थीं
था कुम्हलाया हरा-सा रंग
चीड़ के पत्तों पर पहाड़ों की उदासी
बर्फ़ की तरह रुकी थी
उसमें डोल रहे थे चमकीली सुबह के उदग्र छौने
नदियों के जल में बसी हवा पीने चला आया था सूरज
मछलियों के गलफ़ड़े में बचा था फिर भी जीवन
असफलताओं के बीच यह अन्तिम विश्वास की तरह था ।