जीवन नहीं है समय की तरह
कि बाँध लोगे जिसे किसी रेतघड़ी में और
जब ख़त्म हो जाएगी एक हिस्से की रेत
रख दोगे फिर से पलटकर
जीवन नहीं है ऐसा कुछ
जो चलेगा किसी घण्टाघर की ऊँची मीनार में लगी
पुरानी घड़ी की सुइयों की पाबन्दी में
जीवन बधा नहीं है
किसी व्याकरण की किताब में लिखे नियमों से भी
जीवन नहीं है नियंत्रित किसी उस चीज़ से
जिससे इसके नियंत्रित होने का भ्रम अक्सर हुआ करता है
शायद किसी आसमान में बैठे किसी अदृश्य के अदृश्य हाथों से भी नहीं ।
जीवन मुक्त है तमाम घड़ियों, किताबों, मीनारों, नियमों और आसमानों से
अपनी सीमाएँ, अपने गन्तव्य, अपनी गति स्वयं तय करता ।
सुबह की किरण उतरती है विशाल वृक्ष की फुनगियों पर
फिसलती हुई मन्द-मन्द फैल जाती है
दृष्टि की सीमाओं तक
विशाल वृक्ष की छाया धीरे-धीरे बढ़ती हुई
जाकर मिल जाती है दूर क्षितिज से और
फिर सबकुछ घुल जाता है
रात के अपारदर्शी काले विस्तार में ।
सुबह फिर से आएगी
भोर की किरण फिर फिसलेगी वृक्ष की फुनगियों से
छायाएँ फिर लम्बी होंगी
पर तब तक परिवर्तित हो चुका होगा सारा परिदृश्य
पुराने वृक्ष खो गए होंगे रात की कालिमा में
अपनी छाया के साथ ही
नदी में नहीं बह रहा होगा कल का पुराना जल
सुबह की किरण भी कल वाली कहाँ होगी
अदृश्य आसमानी हाथों की परिभाषाएँ भी
बदल चुकी होंगी
ज़मीनी हक़ीकतों के बरक्स,
खड़ी हो गई होंगी नई मीनारें
नए प्रतिमान, नई परिभाषाएँ, नए व्याकरण ।
मुट्ठी में बन्द रेत
फिसलती ही रहती है बिना रुके ।